बन्दर और बन्दरिया: अच्छा हुआ हम इन्सान नहीं बने - Good We Are Not Human (Heart Touching Story)
बन्दर और बन्दरिया के विवाह की वर्षगांठ थी। बन्दरिया बड़ी खुश थी।
एक नज़र उसने अपने परिवार पर डाली। तीन प्यारे-प्यारे बच्चे, नाज उठाने
वाला साथी, हर सुख-दु:ख में साथ देने वाली बन्दरों की टोली। पर फिर भी मन
उदास है। सोचने लगी - "काश! मैं भी मनुष्य होती तो कितना अच्छा होता। आज
केक काटकर सालगिरह मनाते। दोस्तों के साथ पार्टी करते। हाय! सच में कितना
मजा आता।
बन्दर ने अपनी बन्दरिया को देखकर तुरन्त भांप लिया कि इसके दिमाग में जरुर कोई ख्याली पुलाव पक रहा है। उसने तुरन्त टोका- "अजी, सुनती हो! ये दिन में सपने देखना बन्द करो। जरा अपने बच्चों को भी देख लो, जाने कहाँ भटक रहे हैं? मैं जा रहा हूँ बस्ती में, कुछ खाने का सामान लेकर आऊँगा तेरे लिए। आज तुम्हें कुछ अच्छा खिलाने का मन कर रहा है मेरा।
बन्दरिया बुरा सा मुँह बनाकर अपने बच्चों के पीछे चल दी। जैसे-जैसे सूरज चढ़ रहा था, उसका पारा भी चढ़ रहा था। अच्छे पकवान के विषय में सोचती तो मुँह में पानी आ जाता। "पता नहीं मेरा बन्दर आज मुझे क्या खिलाने वाला है? अभी तक नहीं आया।" जैसे ही उसे अपना बन्दर आता दिखा झट से पहुँच गई उसके पास।
बन्दरिया बोली- "क्या लाए हो जी! मेरे लिए। दो ना, मुझे बड़ी भूख लगी है। ये क्या तुम तो खाली हाथ आ गये!"
बन्दर ने कहा- "हाँ, कुछ नहीं मिला। यहीं जंगल से कुछ लाता हूँ।"
बन्दरिया नाराज होकर बोली- "नहीं चाहिए मुझे कुछ भी। सुबह तो मजनू बन रहे थे, अब साधु क्यों बन गए?"
बन्दर- "अरी, भाग्यवान! जरा चुप भी रह लिया कर। पूरे दिन कच-कच करती रहती हो।"
बन्दरिया- "हाँ-हाँ! क्यों नहीं, मैं ही ज्यादा बोलती हूँ। पूरा दिन तुम्हारे परिवार की देखरेख करती हूँ। तुम्हारे बच्चों के आगे-पीछे दौड़ती रहती हूँ। इसने उसकी टांग खींची, उसने इसकी कान खींची, सारा दिन झगड़े सुलझाती रहती हूँ।"
बन्दर- "अब बस भी कर, मुँह बन्द करेगी, तभी तो मैं कुछ बोलूँगा। गया था मैं तेरे लिए पकवान लाने शर्मा जी की छत पर। मैंने रसोई की खिड़की से एक आलू का परांठा झटक भी लिया था पर तभी शर्मा जी की बड़ी बहू की आवाज़ सुनाई पड़ी-
"अरी, अम्मा जी! अब क्या बताऊँ, ये और बच्चे नाश्ता कर चुके हैं। मैंने भी खा लिया है और आपके लिए भी एक परांठा बनाकर रखा था मैंने। पर, खिड़की से बन्दर उठा ले गया। अब क्या करुँ? फिर से चुल्हा चौंका तो नहीं कर सकती ना मैं। आप देवरानी जी के वहाँ जाकर खा लो।"
अम्मा ने रुँधाए से स्वर में कहा- "पर, मुझे दवा खानी है, बेटा!"
बहू ने तुरन्त पलटकर कहा- तो मैं क्या करुँ? अम्मा जी! वैसे भी आप शायद भूल गयीं हैं, आज से आपको वहीं पर खाना है। एक महीना पूरा हो गया है, आपको मेरे यहाँ खाते हुए। देवरानी जी तो शुरु से ही चालाक हैं, वो नहीं आयेंगी आपको बुलाने। पर तय तो यही हुआ था कि एक महीना आप यहाँ खायेंगी और एक महीना वहाँ।"
अम्मा जी की आँखों में आँसू थे, वे बोल नहीं पा रहीं थीं।
बड़ी बहू फिर बोली- "ठीक है, अभी नहीं जाना चाहती तो रुक जाईये। मैं दो घण्टे बाद दोपहर का भोजन बनाऊँगी, तब खा लीजिएगा।"
बन्दर ने बन्दरिया से कहा कि "भाग्यवान! मुझसे यह सब देखा नहीं गया और मैंने परांठा वहीं अम्मा जी के सामने गिरा दिया।"
बन्दरिया की आँखों से आँसू बहने लगे। उसे अपने बन्दर पर बड़ा गर्व हो रहा था और बोली- "ऐसे घर का अन्न हम नहीं खायेंगे, जहाँ माँ को बोझ समझते हैं। अच्छा हुआ, जो हम इन्सान नहीं हुए। हम जानवर ही ठीक हैं।"
गोपाल स्वामीजी (भागवत प्रवक्ता) से संकलित लेख
बन्दर ने अपनी बन्दरिया को देखकर तुरन्त भांप लिया कि इसके दिमाग में जरुर कोई ख्याली पुलाव पक रहा है। उसने तुरन्त टोका- "अजी, सुनती हो! ये दिन में सपने देखना बन्द करो। जरा अपने बच्चों को भी देख लो, जाने कहाँ भटक रहे हैं? मैं जा रहा हूँ बस्ती में, कुछ खाने का सामान लेकर आऊँगा तेरे लिए। आज तुम्हें कुछ अच्छा खिलाने का मन कर रहा है मेरा।
बन्दरिया बुरा सा मुँह बनाकर अपने बच्चों के पीछे चल दी। जैसे-जैसे सूरज चढ़ रहा था, उसका पारा भी चढ़ रहा था। अच्छे पकवान के विषय में सोचती तो मुँह में पानी आ जाता। "पता नहीं मेरा बन्दर आज मुझे क्या खिलाने वाला है? अभी तक नहीं आया।" जैसे ही उसे अपना बन्दर आता दिखा झट से पहुँच गई उसके पास।
बन्दरिया बोली- "क्या लाए हो जी! मेरे लिए। दो ना, मुझे बड़ी भूख लगी है। ये क्या तुम तो खाली हाथ आ गये!"
बन्दर ने कहा- "हाँ, कुछ नहीं मिला। यहीं जंगल से कुछ लाता हूँ।"
बन्दरिया नाराज होकर बोली- "नहीं चाहिए मुझे कुछ भी। सुबह तो मजनू बन रहे थे, अब साधु क्यों बन गए?"
बन्दर- "अरी, भाग्यवान! जरा चुप भी रह लिया कर। पूरे दिन कच-कच करती रहती हो।"
बन्दरिया- "हाँ-हाँ! क्यों नहीं, मैं ही ज्यादा बोलती हूँ। पूरा दिन तुम्हारे परिवार की देखरेख करती हूँ। तुम्हारे बच्चों के आगे-पीछे दौड़ती रहती हूँ। इसने उसकी टांग खींची, उसने इसकी कान खींची, सारा दिन झगड़े सुलझाती रहती हूँ।"
बन्दर- "अब बस भी कर, मुँह बन्द करेगी, तभी तो मैं कुछ बोलूँगा। गया था मैं तेरे लिए पकवान लाने शर्मा जी की छत पर। मैंने रसोई की खिड़की से एक आलू का परांठा झटक भी लिया था पर तभी शर्मा जी की बड़ी बहू की आवाज़ सुनाई पड़ी-
"अरी, अम्मा जी! अब क्या बताऊँ, ये और बच्चे नाश्ता कर चुके हैं। मैंने भी खा लिया है और आपके लिए भी एक परांठा बनाकर रखा था मैंने। पर, खिड़की से बन्दर उठा ले गया। अब क्या करुँ? फिर से चुल्हा चौंका तो नहीं कर सकती ना मैं। आप देवरानी जी के वहाँ जाकर खा लो।"
अम्मा ने रुँधाए से स्वर में कहा- "पर, मुझे दवा खानी है, बेटा!"
बहू ने तुरन्त पलटकर कहा- तो मैं क्या करुँ? अम्मा जी! वैसे भी आप शायद भूल गयीं हैं, आज से आपको वहीं पर खाना है। एक महीना पूरा हो गया है, आपको मेरे यहाँ खाते हुए। देवरानी जी तो शुरु से ही चालाक हैं, वो नहीं आयेंगी आपको बुलाने। पर तय तो यही हुआ था कि एक महीना आप यहाँ खायेंगी और एक महीना वहाँ।"
अम्मा जी की आँखों में आँसू थे, वे बोल नहीं पा रहीं थीं।
बड़ी बहू फिर बोली- "ठीक है, अभी नहीं जाना चाहती तो रुक जाईये। मैं दो घण्टे बाद दोपहर का भोजन बनाऊँगी, तब खा लीजिएगा।"
बन्दर ने बन्दरिया से कहा कि "भाग्यवान! मुझसे यह सब देखा नहीं गया और मैंने परांठा वहीं अम्मा जी के सामने गिरा दिया।"
बन्दरिया की आँखों से आँसू बहने लगे। उसे अपने बन्दर पर बड़ा गर्व हो रहा था और बोली- "ऐसे घर का अन्न हम नहीं खायेंगे, जहाँ माँ को बोझ समझते हैं। अच्छा हुआ, जो हम इन्सान नहीं हुए। हम जानवर ही ठीक हैं।"
गोपाल स्वामीजी (भागवत प्रवक्ता) से संकलित लेख
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